Saturday 5 May 2012

दुष्यंत कुमार ---हिंदी गजल नायक


         


मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए – दुष्यंत कुमार


हिंदी गजल की जनवादी परम्परा में दुष्यंत कुमार का नाम सबसे अग्रणी माना जाता है | और ऐसा अनायास नहीं है | हिंदी पट्टी में ऐसी कोई जनवादी गोष्ठी और बहस नहीं , जिसमे उनकी गजलों को उद्धृत नहीं किया जाए | उनकी गजले एक तरफ तो सीधी – सरल भाषा में आम आदमी से संवाद करती हुई प्रतीत होती हैं , वही दूसरी तरफ उनसे कठिन से कठिन समय में भी हौसला और उम्मीद की किरण प्राप्त की जा सकती है | दुष्यंत कुमार की यही ताकत उन्हें अमर करती है |

1 सितम्बर 1933 को बिजनौर उ.प्र. में जन्मे इस महान जनवादी गजलकार की शिक्षा – दीक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई | अपनी पढ़ाई के बाद आरम्भ में वे ‘आकाशवाणी’ से जुड़े |  बाद में उन्होंने सरकारी सेवा में भी काम किया | अपने शुरू के दिनों में दुष्यंत कुमार अपने समकालीनो जैसे  गीत ही लिखा करते थे | तब मंचीय कविता का बोलबाला भी था | जाहिर है , दुष्यंत कुमार भी उससे अछूते नहीं रह सकते थे  | ‘सूर्य का स्वागत’ , ‘आवाजों के घेरे’ और ‘जलते हुए वन का बसंत’ नामक तीन कविता संग्रह , ‘एक कंठ विषपायी’ नामक काव्य नाटक और ‘छोटे छोटे सवाल’ तथा ‘आँगन में एक वृक्ष’ नामक दो उपन्यास के रचयिता दुष्यंत को वास्तविक ख्याति तब मिली , जब उनका गजल संग्रह ‘साये में धूप’ प्रकाशित हुआ | 52 गजलों वाले इस संग्रह ने न सिर्फ आधुनिक हिंदी गजल की परंपरा विकसित की , वरन उसने उर्दू गजल को भी जनता की आवाज बनने के लिए प्रेरित किया |

‘साये में धूप’ नामक यह संग्रह एक तरफ तो हमारे दौर की विडंबनाओं को चिन्हित करता है , वहीँ उससे बढ़कर वह आम आदमी में हौसला भरने का भी काम करता है , कि अंततः हमारी कोशिशे इस व्यवस्था को बदलने में कारगर अवश्य होंगी | जैसे

              हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
              इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए |

              सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
              मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए |

दुष्यंत की गजलों में ‘सूरत बदलने की यही कोशिश’ हर जगह दिखाई देती है | उनकी प्रत्येक गजल में गैर – बराबरी वाली इस अमानवीय व्यवस्था पर एक तरफ किया गया प्रहार है और दूसरी तरफ उसी गजल में उसे दुरुस्त करने की कोशिश भी है |

             कहाँ तो तय था चिरागाँ हर एक घर के लिए
             कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए |

             वे मुतमईन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
             मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए |
यही साफगोई उनकी गजलों की ताकत है और अवाम के बीच उनकी लोकप्रियता का कारण भी | वे जब भी कोई स्वप्न देखते हैं , उसमे भविष्य की दुनिया को बेहतर बनाने का जज्बा ही दिखाई देता है |वे जानते हैं कि हमारा समय बहुत कठिन है , और हमारी तमाम कोशिशो के बावजूद वह अभी भी कठिनतर ही बना हुआ है , लेकिन वे यह भी जानते हैं , एक दिन वह भी अवश्य आएगा जब हमारे यही छोटे छोटे प्रयास नींव का कार्य करेंगे , जिस पर भविष्य की ईमारत खड़ी की जायेगी |

                 थोड़ी आँच बची रहने दो , थोडा धुआँ निकलने दो 
                 कल देखोगी कई मुसाफिर इसी बहाने आयंगे |

                 हम इतिहास नहीं रच पाए , इस पीड़ा में दहते हैं
                 अब जो धाराएं पकड़ेंगे, इसी मुहाने आयेंगे |

आजादी के हासिल होने की बाद , जिस तरह से आम जन-मानस की आशाये और आकांक्षाएं धुल धूसरित हुई , उसने हिंदी कविता को काफी हद तक झकझोर दिया | नागार्जुन , केदारनाथ अग्रवाल , त्रिलोचन , धूमिल और मुक्तिबोध की कविताओं में आम आदमी की बेचैनी और छटपटाहट को साफ साफ़ देखा और पढ़ा जा सकता है | मोहभंग के इसी दौर में दुष्यंत कुमार ने अपनी गजलों के माध्यम से जनता के सामने नए विकल्पों की रुपरेखा प्रस्तुत की | उन्होंने लिखा –

                 कैसे मंजर सामने आने लगे हैं
                 गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं |
                 
                 अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
                 ये कँवल के फुल मुरझाने लगे हैं |

वास्तविकता यह है कि दुष्यंत के मानवीय , सामाजिक , साहित्यिक  और राजनैतिक सरोकार बहुत गहरे थे |उनके गीतों , कविताओं और गजलों ने हर अवसर पर इन सरोकारों का दामन थामे रखा और अवसरानुकूल क्रान्ति का परचम भी फहराया | अनेक अवसरों पर समाज के विभिन्न क्षेत्रों के संघर्षरत लोगो को दुष्यंत का यह शेर उदृत करते हुए सुना जा सकता है |---

                 कैसे आकाश में सुराख़ नहीं हो सकता
                 एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों |

आज दुष्यंत की जिन गजलों पर हमारा समाज गर्व करता है , वे गजले बहुत आसानी से स्थापित नहीं हुई थी | एक तो हिंदी में गजलों की बहुत थोड़ी मोड़ी ही परम्परा थी और दूसरे उर्दू की मंचीय गजलें प्रेमिका की जुल्फों और मयखानो की गलियों में उलझी हुई थी | ऐसे में दुष्यंत को काफी विरोध का सामना करना पड़ा था | उन्हें एक तरह से ख़ारिज तक कर दिया गया था कि ये तो गजलकार ही नहीं हैं | लेकिन दुष्यंत हार मानने वालो में से नहीं थे | उनकी गजलें लगातार अवाम की आवाज बनी रहीं |

               ये जिस्म झुककर बोझ से दोहरा हुआ होगा
               मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा

               यहाँ तक आते आते सुख जाती हैं कई नदियाँ
               मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा |

नियति का यह कैसा व्यंग है कि अनेक प्रतिभाएं अपने जीवन के चरम उत्कर्ष काल में और बहुत कम उम्र में संसार से चली गयीं | भारतेंदु हरिश्चंद्र , जयशंकर प्रसाद , मोहन राकेश , पाश और धूमिल जैसे नामों के साथ ‘दुष्यंत कुमार’ का नाम भी तब इस सुची में जुड गया , जब 30 दिसंबर 1975 को मात्र बयालीस वर्ष की अवस्था में उनका निधन हो गया | उनकी पंक्तियाँ आज भी हमारे दिमागों पर दस्तक देकर हमें झकझोरती हैं और जीवित रहने , संघर्ष करने  और अन्याय के विरुद्ध आवाज बुलंद करने की प्रेरणा देती रहती हैं | इस जनवादी गजलकार को हमारा क्रांतिकारी लाल सलाम |


                                                          रामजी तिवारी